भगवान बुद्ध के दो सम्मानित शिष्यों अरिहंत सारिपुत्त तथा अरिहंत मोदगलायन के पवित्र अस्थि अवशेषों को मध्य प्रदेश के सांची क्षेत्र में रखा गया है। पवित्र अवशेषों की खुदाई 1851 में ब्रिटिश पुरातत्वविदों द्वारा की गई थी और फिर उन्हें इंग्लैंड के विक्टोरिया और अल्बर्ट संग्रहालय में ले जाया गया था।
हालांकि 1920 के दशक में इंग्लैंड, श्रीलंका और भारत में महाबोधि सोसाइटी ने दिवंगत अरहंत अनागारिका धर्मपाल और महाबोधि सोसाइटी ऑफ इंडिया के संस्थापक अध्यक्ष दिवंगत न्यायमूर्ति आशुतोष मुखर्जी के नेतृत्व में इन पवित्र अवशेषों को भारत वापस लाने के लिए एक अभियान चलाया गया।
इस लंबे संघर्ष को भारत के भिक्खु भदंत आनंद कोसल्यायन ने आगे बढ़ाया और अंततः 1948 में स्वतंत्र भारत की सरकार उन्हें इंग्लैंड से वापस लाने में सफल रही। इस संबंध में वित्तीय और राजनीतिक समर्थन देने में थाईलैंड के तत्कालीन राजाओं की भूमिका भी बहुत महत्वपूर्ण थी।
अवशेष 1952 में महाबोधि सोसाइटी के अध्यक्ष डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा दक्षिण पूर्व एशिया और अन्य देशों की धम्मयात्रा के हिस्से के रूप में भारत लाए गए थे। धार्मिक और वैचारिक विभाजन पर चल रहे गतिरोध और हिंसा से जूझ रहे विश्व में सारिपुत्त तथा मोदगलायन के पवित्र अस्थि अवशेषों की भारत में बहाली संघर्ष टालने का एक अनूठा उदाहरण है।
सांची के स्तूप को भारत का सबसे पुराने बौद्ध स्थलों में गिना जाता है, जिसमें सबसे पुरानी पत्थर की संरचनाएं भी बनी हुई हैं। इसे यूनेस्को द्वारा वर्ल्ड हेरिटेज साइट का दर्जा प्राप्त है और इसके महत्व को देखते हुए भारत में जब 200 रुपये का नोट लॉन्च किया गया तो उस पर सांची के स्तूप की तस्वीर को दर्शाया गया।
हाल ही में भारत की ओर से 26 दिवसीय प्रदर्शनी के लिए भगवान बुद्ध और उनके शिष्यों अरिहंत सारिपुत्त तथा अरिहंत मोदगलायन के पवित्र अस्थि अवशेषों को थाईलैंड भेजा गया है, जहां उनके अवशेषों के दर्शन के लिए देश भर से श्रद्धालुओं का तांता लगा हुआ है।
(रिपोर्ट. शाश्वत तिवारी)