पश्चिम बंगाल के आखिरी वामपंथी मुख्यमंत्री_ बुद्धदेब भट्टाचार्य अब नहीं रहे(शाश्वत तिवारी)

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वामपंथी नेता बुद्धदेब भट्टाचार्य उन नेताओं में शामिल थे, जिन्होंने वैचारिक उसूलों के लिए बड़े-बड़े ऑफर ठुकरा दिए। बंगाली भद्रलोक के नुमाइंदा रहे सादगी पंसद भट्टाचार्य के जीवन से जुड़े कई किस्से हैं। राजनीतिक जीवन में वह प्रचंड जीत और घोर पराजय के साक्षी भी रहे। बंगाल के मिखाइल गोर्वाचेव कहे जाने वाले बुद्धदेव भट्टाचार्य पिछले 12 साल में भुला ही दिए गए।
बुद्धदेब भट्टाचार्य उन शीर्ष नेताओं में शुमार रहे, जो भारत में वामपंथ की विचारधारा का सूर्योदय और सूर्यास्त के साक्षी रहे। विचारधारा के पक्के बुद्धदेव भट्टाचार्य के 11 साल के कार्यकाल में ममता बनर्जी को बंगाल में फलने-फूलने का राजनीतिक मौका मिला। उन्होंने बंगाल के औद्योगीकरण की कोशिश की। सिंगूर और नंदीग्राम के आंदोलन हुए, फिर टीएमसी के हाथ में सत्ता चली गई। 2011 में उन्होंने वाम का गढ़ माने जाने वाले पश्चिम बंगाल में ‘लाल किला’ को ढहते हुए भी देखा। इस हार के बाद उन्हें बंगाल का मिखाइल गोर्वाचेव भी कहा जाने लगा। इसे विचारधारा के प्रति निष्ठा मानें या जिद, बुद्धदेव भट्टाचार्य सत्ता में रहने के बाद भी कभी शान ओ शौकत और व्यक्तिगत हितों के लिए ताकत की नुमाइश नहीं की। सत्ता से हटने के बाद भी वह डगमगाते नहीं दिखे। 2022 में उन्होंने नरेंद्र मोदी सरकार की ओर से नामित करने बाद देश के प्रतिष्ठित सम्मान पद्म विभूषण लेने से इनकार कर दिया था।


ठुकरा दिया था पद्म विभूषण का सम्मान।


पार्टी लाइन पर अड़े:
पश्चिम बंगाल के पूर्व सीएम की वैचारिक प्रतिबद्धता की तारीफ और आलोचना दोनों होती रही। इस पर सबसे अधिक चर्चा उस समय हुई, जब 2022 में नरेंद्र मोदी सरकार ने राजनीति में उत्कृष्ट योगदान के लिए वामपंथी नेता को पद्म विभूषण देने की घोषणा की थी, जिसे विचारधारा का तर्क देकर बुद्धदेब भट्टाचार्य ने ठुकरा दिया। पार्टी की ओर से बयान आया कि सीपीएम आम लोगों के लिए काम करती है, अवॉर्ड के लिए नहीं। बुद्धदेब भट्टाचार्य ने पार्टी लाइन के आधार पर पुरस्कार को स्वीकार नहीं किया। ईएमएस नंबूदरीपाद के बाद वह दूसरे वामपंथी नेता थे, जिसने राष्ट्रीय सम्मान को ठुकराया था। ज्योति बसु ने भी भारतरत्न देने के ऑफर को मना कर दिया था।


प्राइवेट हॉस्पिटल में इलाज की पेशकश को भी ठुकराया।


इसके अलावा बुद्धदेब भट्टाचार्य से जुड़े कई किस्से मशहूर हैं, जो बताते हैं कि उन्होंने सत्ता में रहने और बाहर होने के बाद भी वैचारिक प्रतिबद्धता पर अपनी जिंदगी में पूरी तरह अमल किया। मंत्री और सीएम रहने के बाद भी उनके पास न तो लाखों की दौलत थी और न ही कार। अपनी सैलरी वह पार्टी फंड में देते रहे और परिवार का खर्च पार्टी चलाता रहा। उनका अंतिम समय भी दक्षिण कोलकाता के पाम एवेन्यू के पुराने 770 स्क्वॉयर फुट के दो कमरों वाले फ्लैट में ही बीता। यह फ्लैट उनकी पत्नी के नाम पर थी। पिछले पांच साल से वह बीमारी से जूझ रहे थे। राज्य की टीएमसी सरकार ने उन्हें बेहतर इलाज के लिए प्राइवेट हॉस्पिटल भेजने की पेशकश की थी, जिसे भट्टाचार्य ने ठुकरा दिया दिया था।

2011 में हार का मलाल रहा, उद्योग नहीं लगाने का मलाल
बुद्धदेब भट्टाचार्य बीमारी के कारण लंबे समय तक सार्वजनिक कार्यक्रमों से दूर रहे। पार्टी से जुड़े लोग बताते हैं कि 2011 में चुनाव हारने के बाद से ही उन्होंने राजनीति से दूरी बना ली। गिने-चुने मौकों पर मीडिया से बातचीत में उन्होंने सिंगूर और नंदीग्राम पर टिप्पणी नहीं की। उन्हें सबसे अधिक सदमा उन बुद्धिजीवियों से लगा, जिन्होंने सिंगूर आंदोलन के बाद दोषी ठहराया दिया था। पार्टी के एक कार्यक्रम में भट्टाचार्य ने कहा कि पार्टी को अपनी गलतियों से सीखना होगा। उन्हें हमेशा इसका मलाल रहा कि भूमि सुधार के बाद वह राज्य में औद्योगिक विकास नहीं कर पाए। जब उन्होंने सुधार की कोशिश की तो सत्ता से हाथ धोना पड़ा। टाटा जैसी कंपनी को प्रोडक्शन से ठीक पहले बोरिया-बिस्तर बांधकर सानंद जाना पड़ गया। तीन अक्टूबर 2008 को रतन टाटा ने कोलकाता में नैनो कार परियोजना को सिंगूर से बाहर ले जाने का ऐलान किया था। इस ऐलान ने बुद्धदेब सरकार की काफी किरकिरी कराई। साथ ही, ज़मीन अधिग्रहण विरोधी आंदोलनों ने ही ममता बनर्जी के लिए बंगाल के तख्त तक राह आसान कर दी। 2011 के चुनावों में खुद भट्टाचार्य जाधवपुर विधानसभा सीट पर टीएमसी के मनीष गुप्ता से हार गए थे।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)

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