अफवाहों, गलत खबरों का अब किसान देंगे जवाब..

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संसद का शीतकालीन सत्र नहीं होगा मगर सर्दी पड़ेगी. शीतकालीन सत्र नहीं होगा यह सुन कर आप यह न सोचें कि सर्दी की छुट्टी हो गई.

संसद का शीतकालीन सत्र नहीं होगा मगर सर्दी पड़ेगी. शीतकालीन सत्र नहीं होगा यह सुन कर आप यह न सोचें कि सर्दी की छुट्टी हो गई. सिंतबर के महीने में संसद का सत्र होने में कोई दिक्कत नहीं आई जिसमें कृषि विधेयक पास हुए थे, लेकिन दिसंबर के महीने में कोरोना के कारण शीतकालीन सत्र नहीं होगा जब किसान आंदोलन कर रहे हैं. चुनाव हो सकते हैं, रैलियां हो सकती हैं, तरह तरह की परीक्षाएं हो सकती हैं मगर संसद का शीतकालीन सत्र नहीं हो सकता है. लेकिन खुशी की बात है कि गुडमॉर्निग मैसेज भेजने पर कोई रोक नहीं है. जब तक गुडमार्निंग मैसेज भेजने की आज़ादी है तब तक आप लोकतंत्र की चिन्ता न करें. उसकी तो बिल्कुल ही चिन्ता न करें जो आपके गुडमार्निंग मैसेज से तंग आ चुका है.

सरकार से लड़ते लड़ते किसान सर्दी से लड़ने लगा है. आधी रात के बाद का तापमान 4 से 6 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है. अलाव के अलावा ठंड से लड़ने के कुछ और भी इंतज़ाम किए गए हैं जो अच्छे तो हैं मगर काफी नहीं हैं. यहां पहाड़ों में लगने वाले कैंप में जिस तरह के टेंट इस्तमाल किए जाते हैं वही टेंट किसानों के लिए एक संस्था ने लगा दिए हैं. सर्दी की हवा आसानी से भीतर नहीं जाती है. लेकिन 100 टेंट से कुछ ही किसानों को राहत मिल पाती है. इसलिए कुछ किसान ट्रैक्टर की ट्राली के नीचे सिमटे हुए हैं. अलाव के सहारे रात काट रहे हैं. सर्दी किसानों का इम्तहान लेने लगी है और किसान भी सर्दी से लड़ने लगे हैं. यहां पर देसी टेकनिक से पानी गरम हो रहा है जिसका ज़िक्र प्रधानमंत्री आत्मनिर्भर भारत के तहत मन की बात में भी कर सकते हैं. 

खालसा एड ने भाप से चलने वाले 100 गीज़र लगाए हैं. इस जगह पर 25 गीज़र लगे हैं बाकी किसानों को दे दिए गए हैं. यहां पर हर घंटे 1500 बाल्टी पानी गरम हो जाती है. गरम पानी का लाभ हज़ारों किसानों को मिल रहा है. आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि किसान किस इरादे से आंदोलन में आए हैं. यह भारत का पहला आत्मनिर्भर आंदोलन लगता है इसका भी जिक्र प्रधानमंत्री मन की बात में कर सकते हैं. यहां पर 6 सामूहिक वाशिंग मशीन भी लगाई गई हैं. गोदी मीडिया और ट्विटर के ट्रोल बता सकते हैं कि देखो देखो किसान नहा रहा है, देखो देखो किसान कपड़े धो रहा है. जिस तरह किसानों के अंग्रेज़ी बोलने और पित्ज़ा खाने पर आंदोलन को खारिज किया, नहाते देख गोदी मीडिया के एंकर स्टुडियो में बेहोश न हो जाएं.

एक तरफ किसान हैं दूसरी तरफ सर्दी और सरकार है. ऐसी सुविधाएं तो हैं मगर सबके लिए नहीं हैं. इसी ठंड में किसानों के मरने की भी ख़बरें आई हैं. रेवाड़ी की तरफ भी किसानों का मोर्चा लगा है. ठंड वहां भी है. 

दिन निकलते ही आंदोलन के तेवर बदलने लगते हैं. किसान पूरे दिन की तैयारी कर तंबू और ट्राली से निकल आते हैं. सिंघु बॉर्डर पर किसानों आंदोलन के मुख्य मंच पर संयुक्त किसान मोर्चा के तहत नेताओं के भाषण चलते रहते हैं. यह मंच इस बात का प्रतीक भी है कि किसान आंदोलन की एकजुटता बनी हुई है. आम किसानों का जमावड़ा भी यहीं रहता है. भारतीय किसान यूनियन के प्रधान मंजीत राय ने गृहमंत्री से मुलाकात की थी. विज्ञान भवन भी गए थे. इस मंच से मंजीत राय किसी भी ग़लत हरकत से बचने की हिदायत दे रहे हैं. हर हाल में अनुशासन बनाए रखने की अपील कर रहे हैं. सरकार कानून वापस लेगी या नहीं, किसान आंदोलन कब तक चलेगा इन सब सवालों के साथ 21 दिन गुज़र गए हैं.

देश के बड़े हिस्से में ठंड पड़ रही है, किसान आंदोलन में किसान ठिठुर रहे हैं लेकिन सरकार के प्रचार वाले पोस्टरों में दिखने वाले किसान के आसपास भी ठंड नहीं है. बिना मफलर और स्वेटर का किसान है. किसान आंदोलन को काउंटर करने के लिए जारी पोस्टरों का किसान काफी खुशहाल है. इस किसान के कंधे पर जो कुदाल है वो लोहे की जगह प्लेटिनम की लगती है क्योंकि अभी इसने मिट्टी का चरण स्पर्श नहीं किया है. किसानों को झूठ से सावधान रहने को कहा जा रहा है फिर भी इस पोस्टर में पति पत्नी खुशहाल नज़र आ रहे हैं. कृषि मंत्री के ग्वालियर कार्यक्रम के पोस्टर में दिख रहा यह किसान जोड़ा गर्मी के कपड़ों में है. पति अपनी भाग्यवान को लहलहाते खेत दिखा रहा है. ऐसा प्रतीत होता है कि इन्हें धान का दाम न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी ज़्यादा मिल गया है और वो भी अडवांस में. प्रधानमंत्री की भी तस्वीर है और नीचे मुरेठां बाने कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर की तस्वीर है. अगर आप प्रचार की ताकत को कम आंकते हैं तो इसका मतलब है कि आप अपनी ताकत को कुछ ज़्यादा आंकते हैं.

सरकार ने सम्मेलन को आंदोलन के स्तर पर लांच कर दिया है. देश भर के 700 ज़िलो में किसान सम्मेलन, प्रेस कांफ्रेंस और चौपाल के ज़रिए सरकार कृषि कानून के फायदे गिनाएगी. सागर, इंदौर, रीवा सब जगह कार्यक्रम हो रहे हैं. जिसके लिए किसान कम न पड़ जाएं इसलिए कार्यकर्ताओं से हाथ जोड़ कर निवेदन किया जा रहा है कि आप सभी पहुंचें.

कौन सा प्रचार युद्ध है, कौन सा प्रोपेगैंडा यह बताने का कोई लाभ नहीं. आंदोलन का मुकाबला सम्मेलन के ज़रिए हो रहा है. किसानों के संगठन के सामने सरकार का समर्थन करने वाले सगंठन लाए गए. ग्वालियर के फूलबाग मैदान में हुए किसान सम्मेलन का फेसबुक लाइव भी किया गया जिसे कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने संबोधित किया और पूरे मसले को प्रधानमंत्री मोदी की छवि से जोड़ दिया.

हर दिन कुछ नया जुड़ता है. अब कानून का विरोध मोदी जी की छवि धूमिल करने के प्रयास से जुड़ गया है. सरकार पहले दिन से क्लियर है कि जो आंदोलन कर रहे हैं वो कंफ्यूज हैं. सरकार का यह आक्रामक रवैया बता रहा है कि वह पीछे नहीं हटेगी. सारा मामला शाहीन बाग़ की तरह अंतहीन सुरंग में जाता दिख रहा है. जहां सड़कों को खाली कराने का जिम्मा अदालत के आदेश के भरोसे छोड़ दिया जाएगा. क्या अच्छा नहीं होता कि सरकार के मंत्री पंजाब और हरियाणा में भी प्रेस कांफ्रेंस और सम्मेलन करते. बल्कि शुरूआत वहीं से करते. उधर पंजाब से उन परिवारों की महिलाएं भी आज आंदोलन में हिस्सा लेने आईं जिनके पतियों और भाइयों ने खुदकुशी कर ली है.

संगठन के समाने संगठन. आंदोलन के सामने सम्मेलन. एक और स्तर पर विभाजन रेखा खींची जा रही है. किसानों को उत्पादन के आधार पर गन्ना किसान, दूध किसान, मटर किसान और टमाटर किसान में बांटा जा रहा है. ताकि लगे कि आंदोलन में शामिल किसानों से ज़्यादा बड़ा हिस्सा तो कुछ और उगाता बेचता है और वो फायदे में है और इस कानून से खुश है. गन्ना किसानों की भुगतान की समस्या बनी हुई है. क्या इसे आंदोलन के दबाव के रूप में देखा जा सकता है कि केंद्र सरकार ने 60 लाख टन चीनी के निर्यात की अनुमति दे दी है ताकि उस पैसे से चीनी मिलें गन्ना किसानों का भुगतान कर सकें? तो ये फैसला चीनी मिलों के लिए है या किसानों के लिए. सरकार ने कहा कि 3500 करोड़ सीधे गन्ना किसानों के खाते में जाएगा. इससे 5 करोड़ किसानों के खाते में जाएगा.

हिन्दू बिज़नेस लाइन की 20 सितंबर की रिपोर्ट के अनुसार गन्ने की खरीद का सीज़न शुरू हो रहा है और अभी ही चीनी मिलों पर गन्ना किसानों का 15,600 करोड़ से अधिक बाकी है. इसमें से 12,994 करोड़ तो सिर्फ़ 2019-20 का है. बाक़ी पिछले सालों का बक़ाया है. संसद में उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय ने लिखित जवाब में ये जानकारी दी थी. वादा था कि यूपी के गन्ना किसानों को 14 दिन में भुगतान होगा, क्या हुआ, क्या गन्ने का समर्थन मूल्य बढ़ा. 

गन्ने के संदर्भ में एक मसला है इथेनॉल का जिसकी चर्चा प्रधानमंत्री अक्सर करते रहते हैं और 12 दिसंबर को फिक्की के उद्योगपतियों के साथ भी की. 2018 में भारत सरकार ने एक नीति बनाई कि आने वाले वर्षों में पेट्रोल में इथेनॉल की मात्रा 10 से 20 प्रतिशत तक की जाएगी ताकि कच्चे तेल के निर्यात का बजट कम हो सके. इसके पीछे का विचार यह भी है कि चीनी मिलें इथेनॉल बेचकर जब कमाने लगेंगी तो घाटे से उबर आएंगी और गन्ना किसानों का भुगतान करने लगेंगी. आपको लगेगा कि सारा कुछ गन्ना किसानों के लिए हो रहा है मगर हो रहा है मिलों के लिए.

14 अक्तूबर की हिन्दू बिज़नेस लाइन में राधेश्याम जाधव ने महाराष्ट्र के चीनी मिलों की हालत पर रिपोर्टिग की थी. इसमें चीनी मिलों की संस्था के प्रतिनिधि साफ साफ कहते हैं कि चीनी मिलों के पास इथेनॉल के उत्पादन की न तो झमता है और न ही ढांचा है. नेशनल फेडरेशन फॉर कोपरेटिव सुगर फैक्ट्रीज़ लिमिटेड के प्रबंध निदेशक प्रकाश नाइकनावरे कहते हैं कि महाराष्ट्र में इथेनॉल के उत्पादन का इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं है. चीनी मिलों की वित्तीय हालत खराब है. इस कारण बैंक भी लोन नहीं दे रहे हैं. नतीजा केंद्र सरकार का इथेनाल उत्पादन का लक्ष्य पूरा नहीं हो पा रहा है. 

12 दिसम्बर को प्रधानमंत्री ने कहा था, ‘हमारे देश में पहले इथेनॉल तक को प्राथमिकता देकर Import किया जाता था. जबकि खेतों में गन्ना किसान परेशान रहता था कि उसका गन्ना बिक नहीं रहा या उसके गन्ना किसानों का हजारों करोड़ रुपए का बकाया भी समय पर मिलता नहीं था. हमने इस स्थिति को बदला. हमने देश में ही इथेनॉल के उत्पादन को बढ़ावा दिया. पहले चीनी बनती थी, गुड़ बनता था, कभी चीनी के दाम गिर जाते थे, तो किसान को पैसे नहीं मिलते थे, कभी चीनी के दाम बढ़ जाते थे तो consumer को तकलीफ होती थी यानी कोई व्‍यवस्‍था ऐसे चल ही नहीं सकती थी. और दूसरी तरफ हम हमारे कार-स्‍कूटर चलाने के लिए विदेशों से पेट्रोल लाते थे, अब ये काम इथेनॉल भी कर सकता था. अब देश, पेट्रोल में 10 प्रतिशत तक इथेनॉल की ब्लेंडिंग करने की तरफ बढ़ रहा है. सोचिए, इससे कितना बड़ा बदलाव आने वाला है. इससे गन्ना किसानों की आमदनी तो बढ़ेगी ही, रोजगार के भी नए अवसर मिलेंगे.’

इथेनॉल का आयात बढ़ा है या घटा है सरकार बता सकती है. गन्ना किसानों को भी समय पर पैसे नहीं मिलते. इथेनॉल के उत्पादन से क्या उन्हें ज्यादा दाम मिलने वाला है? इस आंदोलन का एक असर बिहार में दिख रहा है. वहां सरकार धान खरीद को लेकर सक्रिय होने जा रही है, तब जब बड़ी संख्या में किसानों ने समर्थन मूल्य से काफी कम पर धान बेच दिया है.

बिहार में 2006 में एपीएमसी खत्म हो गई लेकिन किसानों को कोई लाभ नहीं हुआ. अब जब पूछा जाने लगा कि बिहार सरकार ने अभी तक धान की कितनी खरीद की है तो पता चला कि 1 लाख टन धान की खरीद भी नहीं हुई है. सरकार ने पैक्स के माध्यम से 31 मार्च तक 45 लाख टन धान की खरीद का लक्ष्य रखा है. जिन किसानों ने 900 रुपया क्विंटल धान बेच दिया उनका क्या होगा, अब सरकार कह रही है कि 1868 रुपये प्रति क्विंटल के भाव से खरीदेंगे.

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